मनुष्य कौन है- एक भटका हुआ भगवान: manusya kaun hai

मनुष्य कौन है एक भटका हुआ भगवान: manusya kaun hai?

"अहम् ब्रह्मास्मि"
 यजुर्वेद
हम का अर्थ होता है "मैं" एक अन्य अर्थ होता है "आत्मा" यह आत्मा सब के अंदर साक्षी रूप में अवस्थित होती है "अहम् ब्रह्मास्मि" का अर्थ है कि मेरी आत्मा या मेरे अंदर का मैं ही सनातन साक्षी है वही "ब्रह्म" है यजुर्वेद के इस महावाक्य के अनुसार मानव भगवान का ही रूप है उसमें ईश्वर का ही तेजो अंश विद्यमान है।

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 पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर ही जीव जगत का आधार है। विज्ञान ने बहुत सारे अविष्कार एवं खोजें की है परंतु इस बात की जानकारी आज तक नहीं हो पाई है कि जीवन और मृत्यु के बीच ऐसा कौन सा सेतु है जिसके होने से मानव क्रियाशील एवं ना होने से निष्क्रिय या अवचेतन अवस्था में चला जाता है।

 प्रकृति का नियम (जीवन-मृत्यु) यह प्रमाणित करता है कि हम सब में ईश्वर का अंश है एवं हम सब भगवान का रूप हैं और केवल मानव ही नहीं संपूर्ण जीव-जगत में ईश्वरीय अंश विद्यमान हैं। पशु-पक्षी पेड़-पौधे जीव जंतु इन सब में भगवान है।
Manusya kaun hai,  manusya kya hai
Manusya kaun hai 

' वैदिक संस्कृति' जो कि दुनिया में सबसे पुरातन मानी जाती है इस संस्कृति की मान्यता है कि भगवान ने यह सृष्टि बनाई है और वे स्वयं चराचर में व्याप्त हैं। गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-    सर्वस्य चाहं.....

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 अर्थात सभी प्राणियों के हृदय में मेरा (भगवान) का वास है। कहा जाता है कि मानव ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की, मानव को बनाया परंतु क्यों? जिस उद्देश्य से भगवान ने मानव को बुद्धिमान प्राणी बनाया। क्या हम उस उद्देश्य का प्राप्त करने में सफल हो पाए हैं? या उस उद्देश्य प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हैं।

 यह तर्क एवं विश्लेषण का विषय है कि हम उस उद्देश्य प्राप्ति के मार्ग में भटक गए हैं और स्वयं को ही भगवान समझने का दुस्साहस कर बैठे। यह भूल गए कि हम उस परमात्मा का तेजो-अंश मात्र हैं जो संपूर्ण चराचर के रचयिता हैं। भगवान ने असंख्य रूपों में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति की है लाखों ऐसे जीव है जो स्वयं अपने पालन-पोषण में सक्षम नहीं है। इनकी सहायता के लिए भगवान ने मनुष्य को तर्कशील विवेकवान संवेदनशील प्राणी बनाया है।

 प्रकृति को मानवीय उपयोग के लिए प्रेषित किया और मानव को प्रकृति के संरक्षण का दायित्व दिया। मनुष्य को तर्क एवं विश्लेषण की शक्ति प्रदान की जिससे वह अपना नैतिक उत्थान कर सके एवं अंधविश्वास तथा धार्मिक आडंबर, सामाजिक बुराइयों से बचकर मानवता की सेवा करें परंतु मनुष्य अपने मार्ग से भटक चुका है और स्वयं में विद्यमान ईश्वर को ही पहचानना भूल बैठा।

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  मानव, मानव का ही नहीं अपितु संपूर्ण जीव-जगत का शत्रु बन चुका है। जो जीव-जंतु, पशु-पक्षी अपने भरण-पोषण के लिए मानव पर आश्रित हैं मानव ने उन्हीं का भक्षण शुरू कर दिया है हम रक्षक से भक्षक बन गए हैं और इस भटकाव के परिणाम भी कोविड-19 संपूर्ण मानव जाति को त्रस्त कर रहे हैं फिर भी हमारी मानवता नहीं जाग रही है

 केरल की वह घटना जिसमें एक गर्भवती हथनी को विस्फोटक वाला फल खिला दिया जिससे उसकी मौत हो गई । संपूर्ण मानव जाति को शर्मसार करती है। मनुष्य ने उस प्रकति को भी असीम क्षति पहुंचाई है जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करती है।

 भौतिकवाद के इस युग में मानव ने लोभ- लालच को पूरा करने के लिए पर्यावरण का अति दोहन किया है। जिससे बाढ़, भूकंप प्राकृतिक-आपदाओं की बारंबारता बड़ी है। जिस धर्म की स्थापना मानव के नैतिक उत्थान के लिए की गई, मानव उसका दुष्प्रचार कर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए उस धर्म का प्रयोग कर रहा है तथाकथित पंडित,मौलवी ,पादरियों ने धर्म को अपने हाथ में लेकर धर्म के ठेकेदार बन गए हैं।

 आसाराम, रामरहीम कई ऐसे उदाहरण हैं जहां धर्म के नाम पर अपराध,अत्याचार, शोषण,पाप,कुकृत्य किए जाते रहे हैं।मानव ने धर्म की परिभाषा ही बदल दी है। एक
ओर तो हम मंदिर, मस्जिदों में भगवान ढूंढते हैं। चढ़ावा चढ़ाते हैं। दान- दक्षिणा देते हैं। वहीं दूसरी ओर इन स्थानों के बाहर  मानव जो जरुरत मंद हैं उनके प्रति संवेदनहीन हो गए हैं जबकि हम सब यह कहते हैं कि
"नर सेवा ही नारायण सेवा है।"

 परंतु फिर भी हम धार्मिक आडंबरो में बंध कर धर्म के रास्ते से भटक गए हैं यहां भिक्षु  का जिक्र करके शिक्षकों को बढ़ावा देने जैसा बिल्कुल भी मोटिव नहीं है बल्कि यह समाज को ही तय करना होगा कि कौन पाने के काबिल है।

आज के मानव का नैतिक पतन हो चुका है। मनुष्य अपने सामाजिक दायित्व भूल गया है। शहरीकरण, वैश्वीकरण तथा पश्चिमीकरण की अंधी दौड़ में हम अपने मूल्यों को खोते जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग वृद्ध-आश्रमों में रहने को मजबूर हो गए हैं। दुर्गा के रूप में पूजी जाने वाली स्त्री आगजनी, हिंसा से पीड़ित है। हैदराबाद की घटना, उन्नाव रेप-कांड जैसी घटनाएं दर्शाती है कि मानव जाति का सामाजिक स्तर कितना गिर गया है।

 मौब-लिंचिंग, चोरी-डकैती, हत्या जैसे अपराध हमारे सामाजिक भटकाव का ही परिणाम है। मानव, मानवता के रास्ते से भटक गया है। यह भटकाव मनुष्य के जीवन के प्रत्येक पक्ष में देखा जा सकता है। वैचारिक स्तर पर, नैतिक स्तर पर, संवेदना के स्तर पर, खुद की अंतरात्मा को जानने के स्तर पर, हम अपने अंदर के भगवान को ही नहीं पहचान पा रहे हैं।

 भगवान अंतरात्मा के रूप में ही मानव के अंदर विद्यमान हैं जो हमें सही-गलत के निर्णय में मददगार होता है। परंतु कई बार हम अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु अपनी आत्मा की आवाज को हटा देते है। इस भटकाव से बचना है या भटक गए हैं तो  स्वयं को अपनी अंतरात्मा में झांकने की आवश्यकता है तथा मानवता को पहचानना चाहिए।

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 जीवन क्षणभंगुर है और मनुष्य एक तुच्छ प्राणी, जिसे उस सर्वशक्तिमान ईश्वर ने बनाया है जिसे हम भूल गए हैं और मानव स्वयं को ही सर्वशक्तिमान समझ बैठा है तथा संसार की प्रत्येक गतिविधि को अपने नियंत्रण में करना चाहता है ।परंतु यह संभव नहीं है। मानव की क्षमताएं सीमित हैं।

 हम प्रकृति को नष्ट करते जा रहे हैं परंतु उसे बनाने की क्षमता मानव में नहीं है इस बात को मानव जाति को भली भाँति समझ लेना चाहिए। ईश्वर द्वारा निर्धारित स्वयं के कर्तव्यों को समझ लेना चाहिए और मानवता की सेवा करना चाहिए। यही जीवन का सार है।

 मनुष्य जिस शरीर के बल पर संपूर्ण संसार को जीतने की इच्छा-शक्ति रखता है। वह क्षणभंगुर है, नाशवान है, इस अटल सत्य को जानते हुए भी हम जातिवाद, ऊंच-नीच के भेद भाव आदि से ग्रसित हो गए हैं और जीवन के महत्व को ही भूल गए हैं।

भगवान तो किसी से भेदभाव नहीं करते हैं। ना ही वह अपने नाम पर दान दक्षिणा की मांग करते हैं। ना भी दूध से अभिषेक करने को कहते हैं और ना ही मँहगे चादर मजारों पर चढ़ाने की बात कहते है। मानव ने अपनी बुद्धि का प्रयोग अपने भोग, लालच और विलासिता के लिए खूब किया है।

 निष्कर्षतः मनुष्य को इस सांसारिक मोह-माया, लोभ, क्रोध, लालच से बचना चाहिए। साथ ही जीवो में ईश्वरीय अंश है। यह जानकर सभी जीवो के प्रति सहानुभूति का भाव रखना चाहिए। मनुष्य का अस्तित्व ब्रह्मांड में अंत में आत्मा रूपी भगवान उस ईश्वर में ही विलीन हो जाएगा। इसलिए मानव को जीवन की सार्थकता मानव सेवा ही है मानव भगवान का ही रूप है यह समझना चाहिए।

  इस संदर्भ में तुलसीदास कृत रामायण की कृतियां उल्लिखित हैं-

"ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि"

धर्म और भगवान के नाम पर राजनीति का ऐसा खेल प्रारंभ हो गया है कि मानव रूपी भगवान हिंसा, अत्याचार, सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाला देवता बन गया है। वैसे तो मानव को भगवान की सबसे सुंदर कृत्य माना जाता है। और कहा जाता है कि "नर सेवा ही नारायण सेवा है" वास्तव में ऐसा है तो दूसरों का अधिकार छीनकर। भेदभाव करके उसे चोट पहुंचाकर प्रसन्नता क्यों होता है?
हमें अपनी  जिम्मेदारी नहीं भूलनी चाहिए।

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